श्री रतन टाटा जी के कलम से
“मैं मुंबई में पैदा हुआ। लेकिन मुझे याद नहीं कब(हंसते हुए)। मैं टाटा हाउस में बड़ा हुआ। अब वो दोयचे बैंक का ऑफिस है। मेरे दादा ने उसे बनवाया था। लेकिन पूरा बनने से पहले ही वो इस दुनिया से चले गए। मेरे पिता और दादी वंही रहते थे। मुंबई से ही मेरी स्कूलिंग हुई। मैं कैंपियन स्कूल में पढ़ता था। लेकिन आखिरी के तीन साल मैंने कैथेड्रल स्कूल में पढ़ाई की थी। कैंपियन स्कूल में मेरा दाखिला तभी हुआ था जब वो शुरू हुआ था। लेकिन बाद में वो बंद हो गया। ज़ुबिन मेहता मेरे क्सालमेट थे। सिपला वाले यूसुफ हमीद भी मेरे ही साथ पढ़ते थे। मैं जब कैथेड्रल स्कूल चला गया तो यूसुफ हमीद ने सेंट मैरीज़ स्कूल में दाखिला ले लिया। अशोक बिड़ला भी मेरे साथ कैथेड्रल स्कूल आ गए थे। कैथेड्रल में राहुल बजाज भी मेरे क्लासमेट थे। ओह, कुछ याद आया। यूसुफ हमीद भी मेरे साथ कैथेड्रल स्कूल में ही थे। वो मेरी तरह कैंपियन स्कूल से नहीं आए थे। वो मुझे कैथेड्रल में ही मिले थे। अब इतने सालों बाद पुरानी बातें ठीक से याद करना ज़रा मुश्किल हो जाता है।”
“दिनशॉ पंडोल भी मेरे क्लासमेट थे। वो बाद में बहुत बड़े स्क्वाश खिलाड़ी बने थे। उनकी एक कंपनी थी ड्यूक ड्रिंक्स नाम से। उसे बाद में कोका कोला ने खरीद लिया था। उन दिनों में हम लोग बच्चों का एक ऐसा ग्रुप थे जिन्हें बस मस्ती करना अच्छा लगता था। किसी के मन में कोई बैर नहीं था। फिर मैं अमेरिका के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ने चला गया। उस साल इंडिया में कॉलेज बोर्ड एग्ज़ाम्स नहीं हो सके थे। मेरे पिता चाहते थे कि मैं इंजीनियर बनूं। इसलिए मैंने कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया। मैंने दो साल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की वहां। लेकिन मेरा मन नहीं लगता था उसमें। मैंने इंजीनियरिंग छोड़कर आर्किटेक्चर में दाखिला ले लिया। मुझे वही पसंद था। वही मैं करना चाहता था। मैं एक आर्किटेक्ट ग्रेजुएट हूं। मैकेनिकल इंजीनियरिंग की जगह मैंने स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग को चुना। उसी में मेरा मन लगता था।”
“कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में मेरा वक्त काफी अच्छा गुज़रा था। आर्किटेक्चरल डिग्री का पांच साल का कोर्स और फिर दो साल का स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग प्रोग्राम। इस तरह सात साल लगे मुझे आर्किटेक्ट बनने में। मेरा बहुत मन लगता था वहां। मुझे बस वहां का ठंड का मौसम पसंद नहीं था। मुझे कभी वहां की ठंड रास नहीं आई। शायद कभी आएगी भी नहीं। ग्रेजुएशन करने के बाद मैं किसी ऐसी जगह रहना चाहता था जहां उतनी ठंड ना पड़ती हो जितनी वहां पड़ती थी। मैं लॉस एंजेलिस आ गया। वहां एक आर्किटेक्ट कंपनी में मैंने नौकरी की। मैं इंडिया नहीं आना चाहता था तब। मैं अमेरिका में बहुत खुश था। लेकिन जब मेरी दादी की तबीयत खराब हुई तो पिता जी ने मुझे वापस बुला लिया। मैं सोचकर आया था कि जल्द ही वापस लौट जाऊंगा। लेकिन दादी ठीक ही नहीं हुई। और मैं वापस जा ही नहीं सका।”
“एक दिन जे.आर.डी.टाटा जी ने मुझे बुलाया और कहा कि मुझे हमारे ग्रुप से जुड़ना चाहिए। चाहे कुछ दिन के लिए ही सही। मैंने उनकी बात मान ली। मुझे जमशेदपुर भेजा गया। वहां मैंने टेल्को(अब टाटा मोटर्स) में छह महीने गुज़ारे। वो दिसंबर 1962 का साल था। उस वक्त वो छह महीने मेरे जीवन का सबसे मुश्किल वक्त था। लेकिन आज जब मैं समय में पीछे देखता हूं तो मानता हूं कि वही छह महीने मेरे जीवन में सबसे अहम भी रहे। मैंने बहुत कुछ सीखा था वहां। मेरा नॉलेज बेस बहुत मजबूत हुआ वहां। लोग बहुत हैरान होते थे कि मुझे कैसे पता है कि हीट ट्रीटमेंट क्या होता है। मिलिंग क्या होती है। ये सब मैंने उन्हीं छह महीनों में जमशेदपुर में सीखा था। उस वक्त पुणे का प्लांट वजूद में नहीं आया था। शायद तब उसका निर्माण चल रहा था। वो छह महीने जब पूरे हुए तो मैंने कसम खाई थी कि मैं टैल्को में कभी काम नहीं करूंगा। मैं टाटा स्टील में चला गया।”
“मैं जमशेदपुर में ही था जब मेरी दादी की डेथ हो गई थी। मुझे लगा कि अब मैं अमेरिका वापस जा सकता हूं। मैं अमेरिका जाकर नौकरी करना चाहता था। उस वक्त मुझे बस नौकरी करने का मन करता था। मैंने दो तीन दफा अमेरिका जाने की कोशिश की थी वैसे। लेकिन हर बार किसी ना किसी वजह से नहीं जा पाया। मैंने अपना पूरा ध्यान टाटा स्टील्स पर लगा दिया। वहां से भी मैंने बहुत कुछ सीखा।”
मनोज शर्मा की रिपोर्ट